
डॉ. गोपाल ठाकुर
रामराज में आपन बेर-बेर के अपमान बर्दास्त से बाहर भइला पर सीता धरती में समा गइली। राम के प्रकोपो देखल गइल बाँकिर धरती सीता के फेर से ना उगिलली। धीरे-धीरे राम के सीता बिना रहे के आदतो लाग गइल। न्याय के बात त कोई राम से सीखे। राम, भरत, लछुमन, शत्रुघ्न चारू भाई के दू-दू गो सपुत्र रहे लोग। अपना जिनगिए में सब से पहिले आपन कोशलपुर के राजपाट कुश आ लव में उत्तर कोशल आ दक्खिन कोशल बनाके बाँट देहलें। एहीतरे महाराज राम के आज्ञानुसार भरत सुपुत्रद्वय तक्ष आ पुष्कल सहित सिंधु नदी के दूनू किनारे बसल गंधर्व देश पर चढ़ाई कके जीतके दूगो राज बनाके तक्ष के तक्षशिला आ पुष्कल के पुष्कलावत के राजा बना देहलें। ओकरा बाद लछुमन के सुपुत्रद्वय अंगद आ चंद्रकेतु में से क्रमशः कामरूप देश के राजधानी अंगदिया में राजधानी बनाके अंगद के आ मल्लभूमि देश में चंद्रकांत नगर राजधानी बनाके चंद्रकेतु के राजा बनावल गइल। एहतरे महाराज श्रीराम दस हजार बरीस कोशलाधीश के रूप में राज करत रहलें।
एही तरे कुछ आउर दिन बितला पर तपस्वी के रूप धके काल राजदुआरी आइल। राजदुआर पर लछुमन जी खड़ा रहलें। फेर काल लछुमन से कहलस, ‘महाराज के हमरा आगमन के सूचना द। कहिहऽ कि अति पराक्रमी महर्षि अतिवल के दूत कौनो काम से रउआ से भेंट करे आइल बा।’
लछुमन तुरंत भीतर जाके महाराज श्रीराम के ओह तपस्वी के आवे के सूचना देहलें, ‘हे महाराज! सुरुज के समान कांतिवाला एगो तापसदूत रउआ से भेंट करे आइल बा।’
लछुमन के एतना कहला के देरी भइल, राम सुनते कहलें, ‘हे तात! संदेशवाहक ओह महात्जस्वी तपस्वी के बहुत जल्दी इहाँ ले आवऽ।’
फेर लछुमन बहुत तेज गति से दुआर पर आके ओह तपस्वी के श्रीरामचंद्रजी का लगे ले गइलें। तपस्वी श्रीराम के निअरा जाके बहुत कोमल वाणी से कहलस, ‘महाराज के जय होखो, बढ़ंती होखो।’
महातेजस्वी श्रीरामचंद्रजी ओह ऋषि के स-सम्मान आसनग्रहण करइलें आ उनका से कुशल-क्षेम पुछलें, ‘हे मतिमान! भला भइल जे रउआ अइनी। अब रउआ उनकर संदेश कहीं जे रउआ के आपन दूत बनाके इहाँ भेजले बाड़ें।’
महाराज राम के एतना कहला पर मुनि कह पड़लें, ‘हे राजन! हम आपन संदेश रउआ से एकांत में कहेके चाहतानी। कहे के मतलब हमनी के बात होत समय हमनी दुइए जने रहीं स। काहेकि देवतन के हित देवतन के रहस्यमयी बात छिपावले में बा। अतः हमनी दूनू जने के बातचीत करत समय अगर केहू तीसर जन ओके सुने भा देखे त ऊ अपने के हाँथे मारल जाए।’
श्रीराम अइसन करे के राजी भइलें आ लछुमन से कहले, ‘हे सुमित्रानंदन! जाके तू दुआर पर खड़ा रहऽ। उहाँ से डेहुड़ीदारो के हटा द। सुनऽ, जब तक हमनी दूनू जने बातचीत करत रहेम; तब तक हमरा लगे हमनी के देखे भा हमनी से बातचीत करे केहू ना आवे। अगर केहू अइसन करी त ओके हम अपने हाँथे मार देहेम।’
राम के आदेशानुसार लछुमत दुआर पर डेहुड़ीदार होके खड़िआ गइलें। तब श्रीराम ओह तपस्वी से कहले, ‘अब रउआ कहीं। राउर जे कुछ अभीष्ट होखे भा जे रउआ के भेजले बाड़ें उनकर मनोरथ भी रउआ निःसंकोच भाव से हमे कहीं। एहसे कि हम ऊ सुने खातिर बड़ा उत्सुक बानी। रउआ इहो समझीं कि रउआ जे कुछ कहे आइल बानी सायद ऊ हमरा मालूमो होखे।’
महाराज श्रीराम के ई कथन सुनके ऋषि कहलें, ‘हे महापराक्रमी राम! हमे त बाबा ब्रम़ाजी आपन संदेश कुछ एहतरे कहे के भेजले बानी, “हे परपुरंजय! जौना बेरा पूर्वकाल में सृष्टि सुरू भइल ओही बेरा राउर माया से हमरो उत्पत्ति भइल। एहतरे हम राउरे सवाङ बानी। हे वीर! हमार नाम काल ह आ हम सब के संहार करेवाला बानी। लोकस्वामी बाबा ब्रम़ाजी कि एह लोकन के रक्षा ला रउए जे एह मृत्यभुवन में रहे के आपन समयावधि बऩले रहनी, आ पूरा हो चुकल। रउए पूर्वकाल में माया के जरिए लोक के संहार कके महासागर में सुतल रहनी, ओही बेरा हमे उत्पन्न कइल गइल। तदनंतर ओही बेरा रउआ जलचारी बड़ा शरीरवाला अनंत नाग के उत्पन्न कइनी। एकरा अलावा रउआ आउरो महाबली दूगो जीव के उत्पन्न कइनी। ओकनी के नाम रहे मधु आ कैटभ। ओकनी के मरला पर ओकनिए के हडिअन से पूरा पृथ्वी तोपा गइल आ ओकनी के मेदा यानी लेहू आ चर्बी से धरती पर रहल जल गाऱ होत-होत धरती पर अनेको पर्वत आ वन-उपवन बनल आ आउर जीव के आगमन भइल। एही कारण से एह पृथ्वी मेदनी भी कहाइल। फेर रउआ अपने ढोंढ़ी से सुरुज समान एगो कमल उत्पन्न कइनी। ओह से हमे उत्पन्न कइनी आ हमे प्रजा के उत्पत्ति के काम सउँपनी। एकरा बाद हम रउआ से बिनती कइनी कि रचना त हम कइनी बाँकिर एकर रक्षा अब रउआ करीं, काहेकि हमरा में सृष्टि उत्पन्न करे के शक्ति त रउए से बा। एकरा बाद एह जगत के रक्षा खातिर रउआ विष्णु रूप में अइनी। कश्यप-अदिति के बलवान पुत्र के रूप में उपेंद्र नाम से उत्पन्न होके रउआ आपन भाइअन के आनंद बढ़ावत ओह लोग के सहायता करत रहनी। हे जगतश्रेष्ठ! ओहीतरे अभिनो प्रजा के महादुःखी देखके रावण के वध करे खातिर रउआ मनुष्य रूप धारण कइनी। रउआ ओही बेरा एगारे हजार बरीस त एह मृत्यभुवन में रहेके अवधि बऩले रहनी जे अब पूरा होखेवाला बा। हे महावीर! राउर मंगल होखो। अगर प्रजापालन के आउरो इच्छा होखे त रउआ इहाँ आउरो समय बिता सकतानी। बाँकिर अगर देवलोक के शासन करे के राउर इच्छा होखे त चलके अपना विष्णु रूप से समस्त देवतन के सनाथ आ निर्भय करीं।”’
काल के मुँह से ब्रम़ाजी के ई संदेश सुनके महाराज श्रीराम हँसके सर्वसंहारकारी काल से कहलें, ‘देवाधिदेव ब्रम़ाजी के ई वचन सुनके आ तोहरा आगमन से हम बहुते प्रसन्न भइल बानी। तीनू लोक के कार्य सिद्ध करे खातिर ही हमार ई अवतार भइल बा। हम जहाँ से आइल बानी ओतहीं चल जाएम। हे काल! हम त इहाँ से चले के विचार अपना मने पहिलही कर चुकल रहनी। अतः अब एकरा बारे में कुछ सोचल-विचारल जरूरी नइखे, ब्रम़ाजी जे कुछ कहले बाड़ें, ऊ जल्दिए होई।’
एहतरे महाराज राम के काल से बातचीत होते रहे कि ओही बेरा उनका से भेंट करे महर्षि दुर्वासा राजदुआरी आ धमकलें। आवते अगुताइले महर्षि दुर्वासा लछुमन से कहलें, ‘हमरा श्रीरामचंद्रजी से जल्दी भेंट करावऽ ना त हमार काम बिगड़ रहल बा।’
लछुमन महर्षि दुर्वासा के ई बात सुनके उनका के प्रणाम करत कहलें, ‘हे भगवन! राउर काम का ह? रउआ कौन काम ला उनका से भेंट करेके चाहतानी? हमे कहीं। हम ऊ काम तुरंत कर देहेम। महाराज श्रीराम अभिन कौनो काम में व्यस्त बाड़ें। अतः अगर हमे कहेके नइखीं चाहत त एक मुहुर्तभर ठहर जाईं।’
एतना सुनते ऋषि दुर्वासा खीस का मारे आँख लाल-लाल करत लछुमन से कहलें, ‘हे लछुमन! तू हमरा आगमन के सूचना श्रीरामचंदजी के अभीने देताड़ऽ कि तोहे, तोरा देश के, तोरा नगर के आ राम के हम सराप दीं? एतने ना अगर सराप देहेम त भरत के आ तोहनी के औलादो के सरापेम। काहेकि अब आपन खीस के अपना हिरदा में हम सम़ार नइखीं सकत।’
दुर्वासा के अइसन भयंकर वचन सुनके लछुमन अपना मन में एकर परिणाम पर विचार कइलें। ऊ सोचलें, ‘अगर अभीन श्रीरामचंद्रजी का लगे जातानी त हमहीं अकेले मारल जाएम, आ अगर नइखीं जात त एह ऋषि के सराप से सब केहू के नष्ट होखेके पड़ी। अतः हमरे मारल गइल ठीक बा, ना कि सब के नाश भइल।’ एतना निश्चय कके लछुमन श्रीराम का लगे गइलें आ दुर्वासा ऋषि के आगमन के सूचना देहलें।
लछुमन के वचन सुनते श्रीराम काल के विदा कइलें आ तुरंत दुआर पर आके अत्रिपुत्र दुर्वासा से मिललें। श्रीराम महात्मा दुर्वासा के प्रणाम करत दूनू हाँथ जोड़के कहले, ‘कहीं का आदेश बा।’
महाराज राम के वचन सुनके दुर्वासा ऋषि कहलें, ‘हे पापरहित महाराज! हम एक हजार बरीस तक भोजन ना करे के व्रत धारण कइले रहनी। ऊ आजु पूरा हो गइल। अतः तोहरा इहाँ एतिखान जे कुछ तइआर बा, ऊ हमे भोजन करावऽ।’
दुर्वासा के अइसन याचना सुनते श्रीराम बहुत हर्षित होके अमृत समान स्वादिष्ट भोजन मुनिराज के अर्पित कइलें आ दुर्वासा ऋषि भी भोजन कके बहुत संतुष्ट भइलें आ चल देहलें।
ऋषि दुर्वासा के चल गइला पर काल का सङे कइल आपन विकट प्रतिज्ञा के समझत श्रीरामचंद्रजी बड़ दुःखी भइलें। बेचारा नीचा ओर मुँह कर लेहलें। उनका से कुछिओ बोलल ना गइल। ऊव चुपचाप सोचे लगलें। ऊ काल के बात पर अपना बुद्धि से निश्चय कइले, ‘बस, हो चुकल। अब हमार नोकर-चकर आ हित-कुटुम लोग के समाप्ति के समय आ पहुँचल।’ ई निश्चय कके यशस्वी श्रीराम मौन हो गइलें। उनका के अइसन अवस्था में उदास देखके लछुमन हर्षित होके उनका से कहलें, ‘हे महाबाहो! हमरा ला रउआ संतप्त मत होखीं। काहेकि काल के गतिए कुछ अइसन बा। जे कुछ होखे पर होला, ओकर रचना पहिलही हो गइल रहेला। ओहीसुके हे मर्यादापुरुषोत्तम! रउआ निस्संकोच होके हमे मारके आपन प्रतिज्ञा पूरा करीं। काहेकि प्रतिज्ञा तोड़ेवाला पुरुष नरकगामी होखेलें। हे महाराज! अगर राउर हमरा से नेह बा, अगर राउर हमरा पर कृपादृष्टि बा, त रउआ हमे मारके निस्संदेह सत्यधर्म के रक्षा करीं।’
लछुमन के अइसन वचनन के सुनके महाराज श्रीराम बहुते विकल होके आपन कुलपुरोहित आ मंत्रिअन के बोलइलें। ओह लोग से श्रीरामचंद्रजी के तपस्वी का सङे कइल प्रतिज्ञा आ लछुमन के दुर्वासा ऋषि के सराप का भय से राम का आगे अइला से राम के आज्ञा के उल्लंघन भइल विषय परोसल गइल। अइसन उल्लंघन के विरुद्ध मृत्युदंड पहिले निश्चय हो चुकल आ लछुमन के ओर से भी आपन मृत्युदंड स्वीकार रहल बात बतावल गइल। परिस्थिति के परिणाम पर गहराई से सोचला का चलते श्रीराम के वचन सुनला का बाद सब के सब लोग भौंचक्का रह गइल। तब महातपस्वी वशिष्ठजी कहलें, ‘हे महायशस्वी राम! हमरा योगबल से ई रोमहर्षण नाशकारी वृत्तांत अवगत हो चुकल। लछुमन से अब तोहर वियोग निश्चित बा। हे राजन! काल बलवान बा। तू आपन प्रतिज्ञा के ना त्यागके लछुमन के त्याग करऽ। काहेकि प्रतिज्ञा त्यागला से धर्म के नाश होला आ धर्मनाश से तीनू लोग आ चर-अचर सहित समस्त देवता आ ऋषि के नाश होला। एह में कौनो संशय नइखे। अतः त्रैलोक्य के पालन करे खातिर लछुमन के त्यागऽ आ जगत के स्वस्थ करऽ।’
सभा में एकत्रित लोग के धर्म आ युक्तियुक्त वचन सुनके श्रीराम लछुमन से कहलें, ‘हे सौमित्रे! धर्म में बाधा ना पहुँचो, ओहीसुके हम तोहार त्याग करतानी आ तोहे अभीने विदा करतानी। साधुजन के मतानुसार त्याग आ वध बराबरे बा।’
श्रीराम के ई वचन सुनके लछुमन बहुत विकल भइलन आ आँख से लोरेझोरे भइल ओह सभा के त्यागके सरासर बाहर निकल अइलन। ऊ अपना घरहु ना जाके सीधे सरयू नदी के किनारे पहुँचलें। फेर नदी में आचमन कके दूनू कर जोड़त समूचे इंद्रिअन के निग्रह कक श्वास रोकके खड़िआ गइलें। उनकर एह योगाभ्यास के देखके इंद्र आ इंद्रासन के परी, देवता आ ब्रम़र्षि उनकार पर फूल के बरखा करे लगलें। फेर आम लोग के नजर ना पड़े के हिसाब से इंद्र अइलें आ लछुमन के उठाके स्वर्ग का ओर चल गइलें।
लछुमन त्याग का बाद दुःख आ शोक से संतप्त श्रीराम पुरोहित, मंत्री आ नगरवासिअन के बोलाके कहे लगलें, ‘देखऽ लोगिन, अब हम अयोध्या राजसिंहासन पर भरत के बइठाके अपने वन गमन करेम। अतः अभिषेक के समूचा सामान जल्दी एकट्ठा करऽ लोगन। काहेकि आजे हम लछुमन के पाछा पाछा जाएके चाहतानी।’
महाराज राम के ई बात सुनके सभा में उपस्थित सुमंत्र सहित समूचा लोग मुड़ी का बले जमीन पर गिरके श्रीराम के प्रणाम करत निर्जीव जइसन हो गइलें। भरतो के मूर्छा लाग गइल। कुछ देर में सचेत होके ऊ राज के निंदा करत श्रीरामचंद्रजी के कहलें, ‘हे महाराज! हम सत्य के शपथ खाके कहतानी कि रउआ बिना ई राज त का, स्वर्गलोको हमरा ना चाहीं। हे महाबाहो! रउआ आपन दूनू बेटा कुश आ लव के अभिषेक कर दीं, कौशल देश के राजा कुश के आ उत्तर कौशल के राजा लव के बना दीं। एकरा साथ साथ शत्रुघ्न किहाँ भी जल्दी से दूत भेजके उनका के हमनी के प्रस्थान के संदेश सुनाके जल्दी बोलवा लीं।’
भरत के अइसन बात सुनके आ नगरवासिअन के अत्यंत दुःखी आ नीचा के ओर मुँह लटकौले देखके वशिष्ठजी कहलें, ‘हे वत्स राम! आपन एह प्रजाजन का ओर त देखऽ। शोक का मरे ई लोग भुइआँ लोट रहल बा। एह लोग के मनोरथ जानके तोहरा ओह अनुसार काम कइल उचित होई। एह लोग के इच्छा के विरुद्ध तोहरा कौनो काम कइल ठीक नइखे।’
वशिष्ठजी के वचन सुनके श्रीरामचंद्रजी ओह सब लोग के उठाके पुछलें, ‘कह, तोहनी ला हम का करीं?’
महाराज श्रीराम के एह जिज्ञासा के जवाब में सब लोग एके सङे इहे कहलें, ‘हे राम! जहाँ श्रीराम जइहें ओतहीं उनका पाछा पाछा हमनी सब लोग चलेम। हे राम! अगर हमनी नगरवासिअन में राउर प्रीति आ उत्तम स्नेह बा त बेटा आ मेहरारू सहित हमनी सबकेहू के रउआ अपना सङे चले के अनुमति दीं। बस, एही से हमनी परम प्रसन्न होखेम। इहे हमनी के परम वरदान बा।’
नगरवासिअन के आपना में अइसन दृढ़ भक्ति देखके आ आपन कर्तव्य सहित के विचार कके श्रीरामचंद्रजी ओह लोग के अपना सङे चले के अनुमति दे देहलें आ ओही दिन श्रीराम दक्खिन कोशल में कुश के आ उत्तर कोशल में लव के अभिषिक्त कर देहनी। एहतरे दूनू बेटन के अभिषेक कके आ ओह लोग के अपना गोद में बइठाके ओह लोग सिर सुङ़लें। तदनंतर हजार रथ, दस हजार हाथी, एक लाख घोड़ा आ अथाह धन-रत्न अलग अलग अपना दूनू लइकन के देहलें। ओह लोग के साथ में बहुतो ऱिष्टपुष्ट लोग के लगाके ओकनी के सावधान करत दूनू भाई कुश आ लव के अपना-अपना देश में भेज देहलें। एकरा बाद श्रीरामचंद्रजी शत्रुघ्न के बोलावे के दूत भेजलें।
ऊ दूत भी शीघ्रगामी रहलें स। बड़ी फुर्ती से मथुरा के ओर चल देलन स आ पैंड़ा पर कतहूँ बिना रुकले तीन दिन-रात में मथुरा पहुँचके शत्रुघ्न के समूचा वृत्तांत सुनइलन स। कोशल के दूतन से अइसन कुलक्षयकारी घोर वृत्तांत सुनके शत्रुघ्न आपन समूचा मंत्री, पुरवासी आ कांचन नामक पुरोहित के बोलाके ओह सब लोग के शत्रुघ्न अयोध्या के समाचार सुनइलें। एकरा साथे ऊ इहो कहले, ‘अब हम आपन भाइअन का सङे स्वर्ग जाएम।’
एकरा बाद उनका दूनू पराक्रमी बेटन के राज्याभिषेक भइल। सुबाहु के मथुरा नगरी के आ शत्रुघाती के वैदिश नगर के राजा बनावल गइल। मथुरा में रहल सेना आ धन के दू भाग कके शत्रुघ्न अपना बेटन में बाँट देहलें। ओकरा बाद शत्रुघ्न एगो रथ पर बइठके अकेलही अयोध्या के रवाना भइलें। अयोध्या पहुँचके शत्रुघ्न तेजस्वी श्रीरामचंद्रजी के दर्शन कइलें आ कर जोड़के कहलें, ‘हेर श्रीराम ! हम अपना दूनू बेटन के राज देके रउआ सङे चले के तेआर होके आइल बानी। अतः एह बारे में रउआ आउर कौनो दोसर आदेश मत देहेम। काहेकि राउर आज्ञा के हम उल्लंघन करेके नइखीं चाहत। राउर साथे चलेके चाहतानी।’
शत्रुघ्न के दृढ़निश्चयी देखके श्रीरामो आपन सहमति जना देहलें। एतने में इच्छानुसार असंख्य रूप-धारी बानर, भाल आ राक्षस अयोध्या आ पहुँचलें। ऊ लोग सुग्रीव के नेतृत्व में स्वर्ग जाए के तइआर होके श्रीरामचंद्रजी के दर्शन करे आइल रहलन स। देवता, ऋषि आ गंधर्वन से उत्पन्न ऊ सब बानर-रीछ श्रीराम के परलोक जाए के हाल सुनके आइल रहलन स। ओहीसुके ऊ लोग श्रीराम से कहे लागल, ‘हे राजन! हमनी रउआ सङे चले के आइल बानी। अगर रउआ हमनी के अपना सङे लेहले बिना चल गइनी त हमनी समझेम कि रउआ यमदंड से हमनी के घात कइनी।’ एतने में महाबली सुग्रीव श्रीराम के प्रणाम करत बड़ा नम्रता से कहलें, ‘हे नरनाथ! हम अंगद के आपन राज देके रउआ पाछा पाछा चले के इरादा लेके रउआ लगे आइल बानी।
सुग्रीव के ई बात सुनके श्रीराम मुस्कात कहलें, ‘बहुत अच्छा!’ एकरा बाद ऊ राक्षसराज विभीषण से कहलें, ‘जब तक प्रजा बा लोग, तब तक तू लंकापुरी में राज करत रहिहऽ। जब तक चंद्र-सूर्य विद्यमान हउए, जब तक ई पृथ्वी मौजूद रही, जब तक हमार कथा लोक में प्रचलित रही, तब तक तोहार राज्य स्थिर रहो। हे मित्र! हम मित्रभाव से तोहे ई आज्ञा देतानी। अतः तोरा हमार आज्ञा मानेके चाहीं। हमरा बात के अब कौनो कुछिओ उत्तर मत दिहऽ। हे राक्षसेंद्र! हम तोहे एगो आउर बात कहेके चाहतानी। एह इच्छवाकुकुल के इष्टदेव जगन्नाथ बानी। अतः तू इनकर आराधना करत रहिहऽ।’
विभीषण श्रीराम के बात मान लेहलें आ उनकर एह आज्ञा के सदा पालन करत रहलें।
फेर श्रीराम हनुमान से कहलें, ‘तू त आपन जीवनकाल पहिलही निश्चय कर चुकल बाड़ऽ, से देखिहऽ, आपन ओह प्रतिज्ञा के वृथा मत जाए दिहऽ। हे बानरराज! जब तक एह लोक में हमार कथा के प्रचार रही, तब तक तू हर्षिक होके मर्त्यलोक में वास करिहऽ।’
हनुमानो श्रीराम के बात सहर्ष स्वीकार कइलें।
ओकरा बाद श्रीराम जामवान, मैंद आ द्विविद से कहलें, ‘तोहनी कलियुग प्रवृत्त भइला तक जीवित रहऽ स।’
एहतरे श्रीराम हनुमान, विभीषण, जामवान, मैंद आ द्विविद एह पाँचू जने के जीवित रहे के आज्ञा देहलें। ओकरा बाद श्रीराम उहाँ उपस्थित आउर समूचा बानर आ भालन से कहलें, ‘अपना इच्छानुसार तोहनी सबकेहू हमरा सङे चलऽ स।’
जब रात बितल आ भोर भइल, तब श्रीराम आपन कुलपुरोहित वशिष्ठजी से कहलें, ‘ब्राम़णन के द्वारा हमार प्रज्वलित अग्निहोत्र आ वाजपेय के अत्यंत शोभायमान छत्र महापथ के शोभा बढ़ावत हमरा आगा आगा चलो।’ श्रीराम के वचन अनुसार वशिष्ठजी महाप्रस्थानोचित विधि के अनुसार धर्मकृत्य कइलें। एकरा बाद लगातार श्रीराम मेहीन रेशमी कपड़ा में वैदिक मंत्रन के उच्चारण करत हाँथ में कुश लेहले सरयू नदी का ओर चललें। ओह समय वेदमंत्रोच्चारण के अलावा ऊ ना आउर कुछ बोलत रहलें, ना कौनो प्रकार के कौनो चेष्टा करत रहले, बल्कि पैंड़ा पर काँट-कुश, रोड़ा-पथल के बिना कौनो परवाह कइले खालिए गोड़े प्रकाशमान सुरुज का तरे अपना घर से निकलल रहलें। ओह बेरा उनका दहिना ओर लक्ष्मी, बायाँ ओर भूदेवी आ उनका आगे संहारशक्ति चलत रहली स। उनकर सहायक रहल विविध प्रकार के वाण, उत्तम धनुष आ समूचा आयुध पुरुष के रूप में उनका सङे-सङे जात रहलन स। ओहीतरे ब्राम़ण के रूप धारण कइले सब वेद आ सब के रक्षा करेवाली गायत्री, ओंकार, वषट्कार आ आउर बड़-बड़ ऋषि आ समस्त ब्राम़ण मंडली सब के सब स्वर्ग के दुआर खुलल देखके श्रीरामचंद्रजी के साथ चलल जात रहलन स। उनका पाछा-पाछा रानीवास के सब औरत, बूढ़, बालक, हिंजड़ा, दासदासीजन सङे-सङे जात रहलन स। आपन आपन रानीवासन के साथ भरत आ शत्रुघ्न भी अग्निहोत्र सहित श्रीराम का सङे जात रहलें। महात्मा ब्राम़ण आपन-आपन अग्निहोत्रन सहित आ मेहरारू-बेटन के साथ लेले श्रीराम के पाछु-पाछु जात रहलन स। सब मंत्री आ आउर नोकर-चाकर, पशु, बालक आ भाई-बंदन के सङे लेले बड़ा आनंद का साथ चललें स। समूचा प्रजाजन ऱिष्टपुष्ट होके श्रीरामचंद्रजी के गुण पर मोहित होके उनका पाछा-पाछा चलत रहलन स। ओह समुदाय में ओह बेरा कौनो दुःखी भा उदास भा लज्जित ना लउकत रहलें। एतने ना ओह बेरा देशांतर से जे लोग श्रीरामचंद्रजी के दर्शन करे आइल रहे, उहो लोग उनका पाछु हो गइल रहलन स। एकरा साथ साथ अयोध्या में रहेवाला अदृश्य आत्मा सब भी स्वर्गप्राप्ति के कामना से श्रीराम का पाछु-पाछु गइलन स। इहाँ तक कि स्थावर आ जंगम जीव भी श्रीराम के जात देखते उनका पछाड़ी लाग जात रहलन स। ओह बेरा श्वास लेवेवाला जेतना कीरा-फतिङा आ तिर्यग्योनिवाला जीव रहलें स, ऊ सब उनका साथ चल देले रहलें।
अयोध्या से दू कोस आगू गइला पर पच्छिम का ओर पवित्र प्रवाह से बहत सरयू नदी के देखलें, नदी के किनारे पहुँचलें। एतने में लोकपितामह ब्रम़ाजी समस्त देवतन आ महात्मा ऋषिअन के अपना सङे लेले करोड़ो विमानन सहित उहाँ अइलें। ओह समय मनोरम सुगंधित आ सुखद बेआर बहे लागल। देवता लोग फूल के बरखा करे लगलें। सैकड़ो शंखनाद करत गंधर्व आ अप्सरन से ऊ ठाँव भर गइल। तब श्रीराम पैदले सरयू के जल में डुबलें। उनका बाद आउर लोग भी बड़ा हर्ष के साथ आँख से खुसी के लोर बहावत सरयू में गोंता लगाके आपन देह त्याग कइलें स। देवांशी लोग आपन आपन श्रोत देव में विलीन भइलें त बाँकी लोग के ब्रम़लोक का सटले संतानक लोक मिलल। एहतरे बड़ा रोमांचक रहल श्रीराम के सरयू में सामूहिक जल-समाधि भा सरयू में डूबल!
स्रोतः श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणः उत्तरकांड।