
सीताराम प्रकाश
खुद से नाराज़ हूं आजकल
न कैद न मुक्त
सोचता हूं क्यों ये प्रस्फुटन है आकाश में काला सूरज,
धरती में बषि बीज
माहौल में टूटन है
हर तरफ अजीब सी घुटन है
सवाल सिर्फ एक या कुछ आदमी की खुशी की नहीं
हर तरफ स्वांग है, कुएं में भांग है
कंपकंपी जाड़े की नहीं, जीने की कठोर शर्तें हैं
समझना काफी नहीं समाज, समस्या को
समझौता विहिन होकर जीना मुश्कलि है
क़दम क़दम पर पहरेदार नापाक
सर उठाकर सच बोलना, बोलते रहना मुश्किल है