झुमकी (एकल नाटक)


अनिल कुमार कर्ण

अनिलकुमार कणर्
हँ, हम झुमकी …
माँ कहलक, नोर नइँ खसो,
आँखि सुखा लेलहुँ
बाप कहलक, कल्ला नइ अलगोे, ठोर सीबि लेलहुँ
भाइ कहलक, आँखि नइँ उठो, केबार बन्न क’ लेलहुँ
बहिन कहलक, देह झाँप,
कम्बल ओढि कोठीक कोन्ह मे सन्हिया गेलहुँ
मुदा आब…
आब नहि, किन्नहुँ नहि
चुप नइँ रहब ।
हम कियै नुकाउ , कियै सन्हियाउ
जखन कि हमर कोनो गलती नहि अछि !
लिखू हमर पहिचान
हम झुमकी
हम ओहन काजक लेल कियै लजाउ, किया धखाऊ ?
कियै शरम करू
जे हमर करतूत नइँ, किरदानी नइँ अछि ।
अत्याचार हमरा पर भेल अछि, यातना हम सहने छी ।
हँ, बलात्कार भेल अछि हमर
तँ हम अपराधी जकाँ कियै डराऊ ?
हम झुमकी
लडि रहल छी, आ सदति लडैत रहब
ओहि दानव सभ सँ
जे चिल्होरि जकाँ नोचि लेलक हमर देहक बुट्टी-बुट्टी ।
जे छिन्न-भिन्न क’ देलक हमर अस्तित्व के ।
तोडि देलक हमर आत्मविश्वास केँ
मुदा आब हम साहस बटोरि लेलहुँ
बताएब पूरा दुनियाँ के
ओहि घृणित रातिक एक-एकटा पलक व्यथा ।
ओ अन्हार राति…
जे हमर जिनगी पर कारिख पोति देलक ।
ओ मात्र एक रातिक घटना छल
मुदा ओकर असरि हमरा लेल उमरि भरिक वेदना भ’ गेल ।
सुनू एहि चित्कार केँ
अहीँक गाम-घरक कोनो राहरि खेतसँ , उखिक बारीसँ
पोखरि कातक झोंख़रि सँ आबि रहल अछि…
अहाँक डीह पर आब खून सँ सना रहल अछि ओ अबोध आ निर्दोष बुचिया…
ओ अभागी बुचिया
बेसहारा बुचिया
एहि कोन, ओहि कोन
चारू दिस लतखुर्द्निन मे पड़ल अछि बुचिया ।
ई अट्टाहास सुनू
कनेक नीक जकाँ सुनू
हँ, ई राक्षस सभक अहंकार सँ भरल अट्टहास अछि
निकृष्ट हँसी ।
छूरीक बले ओकरहि ओढनीसँ ओ सभ कसि रहल अछि बुचियाक कन्ठ
आ बुचिया…फसरीक असरि सँ कनेक काल मे देह छोडि देतै ढील
आ फेर हेतै बलात्कार
हँ, बलात्कार ।
कक्का, अहीँ कहने रहिए ने बुचिया केँ…
ई नईं पहिर, ओ नईं पहिर
ऐना नईं चल, ओना नईं चल
केश के बान्हि क’ राख, झाँपिक राख ।
एसनो-पाउडर नईं कर,
ठोर नईं रंग
माथ मे छोटे टा टिकुली साट।
ओ त’ अहाँक कहबे जकाँ सभ किछु केलकै
त’ कियै उठा लेलकै ओकरा अहीँक जन्माओल दैत्य सभ ?
ओकर माथ, ठोर आ छाती मे संस्कार खोजलिए अहाँ
अहाँके यादि अछि ने, ओकर ठेहुन नई उघरलै कहियो
तँ कियै आइ ओकर लहास भेटलै कक्का ?
सौंसे उघार
निष्प्राण बुचियाक नग्न देह मे अहाँ आब खोजू ओकर संस्कार ओकर व्यवहार !
कक्का…आब कहियौ बुचिया केँ
नईं जन्मैं लेल !
जँ फेर सँ जनमए त अहीँ सनक छाती,
अहीँ सनक मोछ, दाढ़ी आ जांघ ल’ क’ जन्मैक ।
नईं चाही एहि समाज के ओ बुचिया…
जे दू बरख मे, पाँच बरख मे, जुआनी मे आ किनसाइत बुढ़ारी मे सेहो उठा लेल जाइत अछि ।
काकी, अहीँ कहू…बुचियाक दोख की छल
अहीँ जकाँ ओकरा महिनबारी भेल छल।
बड्ड जोरसँ पेट दुखाइ छल
आ ओ दबाइ लेब’ लेल चौकधरि गेल छल ।
बीचहि मे उठा लेल गेल ओकरा। छौड़ा सभ ओकर कोनो गति नईं राखलकै ।
ओ निशाभाग राति नईं छल काकी !
साँझ छल ।
मुदा सभ सुतल छल, गहींर निन्न मे ।
बुचिया सभक लेल…ई समाज सभ दिन सुतले रहैत अछि ।
हँ पाहुन, अहुँ गबदी मारि देलिए ने !…
हँ, अहाँ कियै नै मारबै गबदी
अहाँक लेल त’ हम आधा घरबाली रही, सारि अर्थात् आधा कनियाँ ।
सुन्दर आ पवित्र सारि ।
छोट रही हम ।
हमर ठोर आ गाल के निचोरब आ चिथोरब अहाँक अधिकार छल ने ।
अहाँ हमर बहिनोइ रही ।
हँस्सी-मजाक छल ओ सभ ।
कखनि अहाँक हाथ हमर छातीधरि ससरल…
नईं बुझल छै हमर भाइ-बहिन के ।
जे कहैए, बस तू चुप्प रह। हँ, चुप्प रह ।
आइ हमर पवित्रता भंग क’ देल गेल ।
हमर निचोरल-चिथोरल चेहरा
आइ अहाँके कलंकित लगैत अछि ने…।
मुदा एकर शुरुआत त’ अहीँ कयने रही !
एकटा चकलेट द’ क’ की नै कयलहुँ अहाँ हमरा सँग !
हम बुचिया…छोट रही । बुझलहुँ जे ई अहाँक सिनेह अछि ।
हाथ एम्हर ससरब , ओम्हर ससरब केँ हम दुलार मानि लेने रही। हम अबोध रही । नादान रही ।
आब अहीं कहू…अहाँक सिनेह आ हमरा चौरी(चाँचरि मे ओंघराबयबला राक्षसक सिनेह मे की फरक अछि ?
बाबुजी, अहाँ त’ कहने रही, तोरा सँ बड आस अछि’, बड उमेद अछि ।
अहाँ कहलहुँ…कक्काक बात के मोजरि नईं दे, बस पढ़ै-लिखै मे ध्यान दे ।
हम पढलहुँ, लिखलहुँ ।
हमरा पढबै लेल अहाँक कोदारि पारब, हर चलायब, बरद जकाँ दौनी करब, सभ याद अछि ।
अहाँक सपना पूरा करबाक छल। पैघ लोक बनबाक छल हमरा ।
मुदा अहाँ कहियो नईं पुछलहुँ जे अहाँक भरोसाक मोल हम कोना चुकेलहुँ?…
मास्टरजी सेहो बेर(बेर उघारलक हमर देहक किताब ।
लिखैत रहल जबरदस्तीक कथा ।
आ आइ…आइ जखन हमरा सँग एकटा पाहुन, एकटा मास्टर, एहिना बहुत रास लोक जबरदस्ती केलक अछि त’ कहै छी
कल्ला नईं अलगो ।…
नईं बाबूजी, आब नईं ।
आब हम चुप नईं रहब ।
नईं त’ बुचियाक सँग सदरि काल बलात्कार होइत रहतै ।
बुचिया…
बुचिया त’ बुचिया छले, हम झुमकी छी ।
हम बजबै, कहबै… हमर-तोहर
सभ माय-बहिनक पीडा ।
लिखू, हमरा सँग बलात्कार भेल अछि ।
हमरा न्याय चाही ।
बस न्याय ॥
बस न्याय ॥।
(समाप्त)

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