
चन्द्रकिशोर
बहुत अच्छे दिन नहीं थे,
जो बीत गए
आज भी विद्रोह के दिन कौंधते हैं स्मृतियों में ।
यह जो सड़क है, यह खून से रंगे है ।
यह जो धूल उड़ रहे है इसमें सपने भिगें है।
जख्मियों की चीखों का मर्म आज भी छ्लनी करता है ।
सब याद है !
सड़क संघर्ष से निकले लोग
भटकते रहे सत्ता की अँधेरे में,
किसे स्वीकारूं, किसे पुकारूं ?
सिर्फ और सिर्फ असुरक्षा, अपमान और उदासी ।
चारों ओर खरिद बिक्री, लाभ हानी, दांव पेंच,
किसने किसको पीठ पर चाकू मारा ?
किस पर नालिस करू ?
सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है
जो अश्वमेध का विजय रथ दौड़ाता चला आ रहा है,
कोई वेदव्यास है जो आज उसे बतावे
जिस मधेश को राख समझ बैठे हो
उसी के तले आग है
बस एक हवा के झोंका भर का देर है
चक्रव्यूह से फिर निकलेगा
हां हां अपना अभिमन्यु इस बार जितकर बहरेगा,
फहरेगा जय ध्वज ।
यह सोचा जा सकता है