
गजाननमाधव ‘मुक्तिबोध’ हिन्दी साहित्यमे प्रगतिवादी साहित्यमे एकटा प्रमुख नाम अइछ । गद्य कवितामे अपना तरहक असगर कवि मुक्तिबोधके समीक्षकसब दुरुह मानैत छैथ । खास क’ गाम हो वा सडकछाप, श्रमजीवि समुदायबीचके बिम्ब आ प्रतीकसब अपरक्लासी समीक्षकसबके लेल दुरुह भेनाई स्वाभाविके बुझाइत अइछ, जे नियोन साइनबला बिल्डिङ्गसबमे बैस क’ सड़कके समय निहारैत अइछ ।
मुक्तिबोधके कवितासबके पाठके मानवीय युगबोधसंगे जौँ पढ़ल जाय त हुनकर कवितासबमे निहित, पूँजीवादी चक्रव्यूहमे खण्डित होइत मानवीय संघर्षमे कविके छटपटाहट, असंख्य पराजयके बीचोमे जयके आश नेने श्रमशील युग–यथार्थ आ दायित्वके बोध कयल जा सकैय । एतह मुक्तिबोधके ‘अँधेरे मे’ नामक कविताके किछु अंशके मैथिली अनुवाद प्रस्तुत अइछ ।)
जीवन की जीले !
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लोक हित—पिताके घर स निकाइल देले
जन–मन — करुणा सन मायके हकाइर देले
स्वार्थसबहक टेरियर कुत्ता पाइल लेले
भावनाके कर्तव्य …..त्याइग देले
हृदयके मन्तव्य माइर लेले !
बुद्धिके मस्तके फोइड़ देले
तर्कके बाँहि उखाइड़ देले
जइम गेले, जाम भेले, फँइस गेले
अपने थलखिच्चड़मे धँइस गेले ।
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अखन तक की कयले ?
जीवन की जीले !
मइर गेल देश, अयँ, जीविते रहि गेले तोँ !!
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…..हे हमर आदर्शवादी मन
हे हमर सिद्धान्तवादी मन
अखन तक की कयले ?
जीवन की जीले !!
भोजनभट्ट भ’ अनात्म बइन गेले
भूतसबहक बियाहमे कनात सन तइन गेले
कोनो व्यभिचारीके बइन गेले सेज
दुःखक दागके तगमा सन पहिरनाई
अपने गुनधुन्नीमे दिन राइत रहनाई
असंग बुद्धि आ असगरेमे सहनाई
जिनगी निष्क्रिय बइन गेल तरहारा
अखन तक की कयले ?
जीवन की जीले !
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आब अभिव्यक्तिके सब खतरा
उठाबही परत
तोड़ही परत मठ आ गढ सब ।
(अनुवाद : रोशन जनकपुरी)