जोगिरा’ बिनु होलीक कल्पनो नै कएल जा सकैत छै


अजय कुमार साह/रासस

धनुषा, २९ फागुन: “कौन तालपर ढोलक बाजे कौन ताल मृदङ्ग ? कौन तालपर गोरिया नाँचे कौन तालपर हम ? जोगीरा सर र र !!!” बसंत ऋतुके आगमनसँ ल क श्रीपंचमीसँ फागु पूर्णिमाधैरक मिथिलाके गाम, टोल आ घर-आंगनमे गेबाक परम्परा छलै मुदा, अखन जोगिरा गाबै लेल लोक नै भेटैत अइछ, जाहि कारणसँ जोगिरा गेबाक परम्परा लुप्त होबए लागल अइछ।
मिथिलाक लोकसभ होलीमे जोगिरा गाबैत छल, जाहिमे प्रेम, माधुर्य आ ऊर्जा समाहित रहैत छल। संस्कृतिविद् किशोरी साह कहलैन, “होली आ संगीत दुनू गहींर सम्बन्ध राखैत अइछ। संगीत, जोगिरा बिनु होलीक कल्पनो नै कएल जा सकैत अइछ। होली एहन पावैन छियै, जे मनसँ कुण्ठा आ कटुता दूर करैत अइछ।” मिथिला नगरपालिकाक २ नम्बर वाड निवासी ७० वर्षीय रामखेलावन महतो कहलैन,“पहिने श्रीपंचमीसँ फागु पूर्णिमाधैर गाम-गाम घुइम जोगिरा गेबाक परम्परा छल, मुदा अखन नै तँ बूढ़सभ बँचल छै आ नै युवासभ ई गीत गाबए चाहैत छैथ। ढोल-मृदंग सेहो ओतबे बजैत अइछ, जतेक पहिने बाजय छल।” क्षीरेश्वरनाथ नगरपालिकाक ५ नम्बर वाड निवासी ७५ वर्षीय रामभरोसी यादव कहलैन, “पहिने फागु अबिते ढोलक, डफरा आ जोगिराके आवाजसँ गाम गूंजैत छलै मुदा अखन, हमरासभके समूहक कतेको लोक मइर गेल, जे बँचल छी से वृद्ध भ गेलाैँ, मुदा जोगिरा गेबाक रस एखनाे अइछ। हँ, सङ देबएवला कियो छै?” हरिहरपुर निवासी ६५ वर्षीय रामदुलार महतो अपन शैलीमे जोगिरा सुनौलैन— किनका हाथ कनक पिचकारी, किनका हाथ अबीर झोरी ? रामजी हाथमे कनक पिचकारी, सिया जीके हाथ अबीर झोरी ‘!! जोगिरा..सररर..!!’ एहन पौराणिक गाथासँ भरल भक्ति, प्रेम आ व्यंग्ययुक्त जोगिरा मैथिली भाषामे गेबाक परम्परा छल, मुदा एखन ओहो लोप भ रहल अइछ।
जोगिरा फागु गीतके एहन शैली छी, जे नवयौवन मिथिलानीसभकेँ लजाबैत छल आ सामाजिक सीमासभकेँ तोइड़ नाँच करबाक लेल प्रोत्साहित करैत छलै मुदा जोगिरा हराएलाक सङ होलीक सौंदर्य सेहो कम भ गेल। नेपाल पत्रकार महासंघक केन्द्रीय सदस्य राजेश कर्ण कहलैन, “होली मिथिला संस्कृतिक धरोहर छी। ई पावैन सामाजिक छुआछूत, जात-पात आ धर्म-मतभेद दूर करबाक सन्देश दैत छै, मुदा जोगिराक स्थान एखन डिजे लेने अइछ, जे मैथिली मौलिकताकेँ समाप्त क रहल अइछ।” मिथिलाक परम्परासँ जुड़ल होली गीत श्रीपंचमीसँ प्रारम्भ होइत अइछ आ मिथिला माध्यमिकी परिक्रमा समाप्त भेलाक सातम् दिन महोत्तरी जिलाक कञ्चनवनमे परिक्रमा यात्रीसभ एक-दोसरकेँ रंग-गुलाल खेलेबाक सङे होली उत्सव प्रारम्भ करैत छैथ।
पौराणिक कथा अनुसार, सत्ययुगमे अत्याचारी राजा हिरण्यकश्यपु अपन पुत्र प्रह्लादकेँ विष्णुभक्ति छोड़बाक लेल बाध्य करैत छल, मुदा प्रह्लाद भगवानसँ अटूट श्रद्धा राखैत छल। ओहि कारणे हिरण्यकश्यपु अपन बहिन होलिकाकेँ आदेश देलक जे ओ प्रह्लादकेँ आइगमे जरा दियै, मुदा होलिका स्वयं जइर गेल आ प्रह्लाद सुरक्षित रहल। ओहि घटनाकेँ स्मरण करैत होलिका दहनके परम्परा चलल अइछ, जे फागुन शुक्ल पूर्णिमाक राइत होइत अइछ, आ दोसर दिन रंगक पावैन मनाइत अइछ। जनकपुरधाम-१२ निवासी सतीश लाल कर्ण कहलैन, “पहिने होली गीतमे प्रेम, उमंग, उन्मुक्तता, धार्मिकता आ परम्पराक गहींर अर्थ रहैत छल, मुदा एखन उच्छृंखल गीतसभ बाजय लागल अइछ। ओहि कारणे माधुर्य आ सौहार्द्र भरल होली गीत विरल भ गेल अइछ।” पहिने जोगिराक आवाजसँ गाम-गाम रौनक बनल रहैत छल।
नोताबाजी, मजाक आ प्रेमसँ भरल संवादसभ फागुकेँ मनोरंजक बनबैत छल। मुदा एखन जोगिरा गायब भ रहल छै आ ओकर स्थान आधुनिक, बेसुर संगीत लेने अइछ, जाहिमे मिथिला संस्कृति आ फागुक वास्तविक रस समाप्त भ रहल अइछ। क्षीरेश्वरनाथ-७ हरिहरपुर निवासी रामलाल महतो कहलैन, “होलीक पौराणिकता आब हराबैत जा रहल छै। एखर मूल कारण छियै जे समाजमे बढ़ल झगड़ा-झंझट, राग-द्वेष आ कटुता। लोकसभ आब होली गीत गेबासँ परहेज करैत छैथ। होलीक तात्त्विक पक्ष, दर्शन आ मौलिकतापर गंभीरतासँ धियान नै देल जाइत छै, जकर कारण एखनक होलीमे संकीर्णता आइब गेल अइछ।”
पहिने गामक बुजुर्गसभ राइत पड़लाक बाद गामक चौपालमे जमा भ झ्याल, मृदंग, ढोल, डफरा आ तुरकी ल समूहमे बैसिक’ होली गीत आ जोगिरा गबैत छलै, मुदा सखुवा बजारक ७० वर्षीय सत्यनारायण सिंह कहलैन, “ओ समय आब हराइत जा रहल अइछ।” अधिकांश युवक रोजगारीक खोजमे खाड़ी देश गेल छैथ, जाहिसँ होली गीत हराबैत जा रहल अइछ। धनुषाधाम नगरपालिकाक पर्वता निवासी अमरलाल कर्ण कहलैन, “एखनक होली प्रेम आ सद्भावक पावैन नै रइह गेल, बल्कि वैमनस्यता आ कटुता बइढ़ गेल अइछ। भांगक स्थानपर दारू आइब गेल, प्रेम आ सद्भावक स्थानपर राग-द्वेष देखा पइड़ रहल अइछ। एहि लेल होलीक पौराणिकता आ माधुर्य हराइत जा रहल अइछ।” धार्मिक आ सांस्कृतिक दृष्टिकोणसँ होली अत्यन्त महत्वपूर्ण पावैन छी, जे सब जाति-समुदायक लोकसभकेँ जोड़ैत अइछ। पहिनेक होली गीतसभ धार्मिक आ सद्भावक सन्देश दैत छल, मुदा एखन उच्छृंखल गीतसभ बाजैत अइछ। सखुवा बजारक रामकृपाल जयसवाल कहलैन, “एखनक होली गीतसभमे अश्लील शब्द बइढ़ गेल अइछ, जे पारम्परिक माधुर्यकेँ समाप्त क रहल छै।” मिथिलाक शहरी क्षेत्रसँ बेसी ग्रामीण क्षेत्रमे होली गीत गेबाक परम्परा अइछ। ग्रामीण क्षेत्रक होली गीतमे माइटक सुगंध, मौलिकता आ संस्कृति झल्कैत छल, जकर संरक्षण आवश्यक अइछ। वरिष्ठ संस्कृतिविद् आ पत्रकार रामभरोस कापड़ी कहलैन, “पौराणिक होली गीतमे प्रेमालाप, राम-सीता, शिव-पार्वतीक कथा रहैत छल मुदा, आब पश्चिमी सभ्यता आ उच्छृंखलता एहन गीतसभपर हावी भ गेल अइछ, जेकरा कारणे होली गीतक आकर्षण समाप्त भ रहल अइछ।”
गाम-घरमे आब पारम्परिक होली गीतक स्थान भोजपुरी आ आधुनिक गीतसभ लेने अइछ। बसन्त ऋतुक आगमनसँ होली पावैन बसंतोत्सवक रूपमे मनाएल जाइत अइछ, मुदा जोगिरा लोप भ रहल अइछ। साहित्यकार आ संस्कृतिविद् डा. राजेन्द्र बिमल कहलैन, “होली एहन होबाक चाही, जइमे महिला आ पुरुषसभ निडर भ भाग ल सकैथ। मिथिलावासीसभ जकाँ आदर्श होली होबाक चाही, जाहिमे प्रेम आ सद्भाव रहए।” मिथिला-मधेश क्षेत्रमे होली गीत आ जोगिराक संरक्षणक लेल जनकपुरधाम स्थित मिथिला नाट्य कला परिषद् (मिनाप) पछिला किछु सालसँ गाम-गामसँ लोकसभकेँ बजा क जोगिरा प्रतियोगिता आयोजित करैत अइछ। एहि प्रयाससँ जोगिराक परम्पराकेँ पुनर्जीवित करबाक कोशिश कएल जा रहल अइछ।

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