
सतीश चंद्र झा
जखने खोलै छी भोर साँझ
कखनो सोसल मिडियाक गेह।
भेटत नव प्रेमक समाचार ,
ई आयल जग मे केहन नेह।
तन के तन सँ आकर्षण मे
बौरायल अछि नव पौध आइ।
के ककर रिलेशनशिप मे पड़ि
नव ताकि रहल आनंद आइ ।
मायक सपना , बौआ पढ़ि क’
बड़का अफसर बनता निश्चय।
बेटी लए उचित व्यवस्था क’
पढ़बा लए सब भेजथि निर्भय ।
किछु मुदा भ्रमित बनि बिदा भेल
नव प्रेमक पथ के पथिक बनल।
नहि भय ककरो , नहि आत्मग्लानि
तन के तन सँ संबंध बनल।
किछुदिन हर्षक पछिया बसात
बहि रहल अनेरो राति दिवस ।
प्रेमी जोड़ा के लागि रहल
लोकक की चलतै एहि पर वस।
किछुदिनक बाद धीरे धीरे
सबटा आकर्षण धुमिल भेल।
दुहु पुनि मोनक नव तृष्णा मे
उड़िया क’ नवका द्वारि गेल।
ओह! केहन होइत छै ई बंधन
नहि ककरो लए ककरो दरेग।
मन के मन सँ नहि कतौ मिलन
निर्लज्ज देह के प्रवल वेग।